पनप रही है भारत मैं समस्याये अनेक, उभर चुका है अभिशाप बन दूसरी ओर दहेज़, .
समय बदला समाज बदला बदली न रुदिवादिता भेट स्वरुप मिली है जिससे यह दहेजदानावता
आज भी हर रोज वह दुखद जीवन जीने को है मजबूर
सुखद सपने सजोती है वह, खुशियाँ तो है मानो कोसों दूर,
नारी का चाहे जो भी रूप हो नारी होना ही मानो अभिशाप हो
गुजरना होता है उसे इसी पथ से इक वेदना व् करुण क्रंदन सा झलकता है उसके सजल नेत्र से
पर क्या कहे पर कहने को तो समाज बहुत कुछ कहता है
पर क्या करे सहने को तो वह हर रोज बेटिओं का गम सहता है
धारणा तो हम रखते है इस कुप्रथा को मिटाने को ,
पर समाज ही दोषी है इस दहेज़ दानव को जगाने को
हर पिता चाह रखता है बेटी को हर ख़ुशी दिलाने को
समझोता करता है विषम परिस्थिति से वचन अपना निभाने को
पर फिर भी मौत के आगोश मे सोती है हमारी बेटिया
झील सी गहराइयों में हो जाती है विलीन गम के अंधेरो में गुम जाती है हमारी बेटिया
Very well portrayed this social evil in your words.
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