Sunday, October 31, 2010

परवशता

परवशता
जो आंखे बरसा रही थी स्नेह सुधा मेरे लिए
पलक झपकते ही बुन दिया इक अभेद्य जाल
इन काबिल लोगो के बीच में निकम्मा सिद्ध हुआ
और उठा दिया गया इशारो ही इशारो में इनके बीच से 
और इक दुसरे को देखती इनकी पुतलियाँ हंसी जी भर कर 
मेरी अयोग्यता  और नादानी पर, मेरे सबसे योग्य होते हुए भी 
मेने बार बार सिद्ध किया अपनी योग्यता और सार्थकता 
पर हटा दिया गया हमेशा के लिए मकान के उस कोने से भी
जोसुरक्षित था जंग लगे लोहे और रद्दी पड़े अख़बार के लिए

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