परवशता
जो आंखे बरसा रही थी स्नेह सुधा मेरे लिए
पलक झपकते ही बुन दिया इक अभेद्य जाल
इन काबिल लोगो के बीच में निकम्मा सिद्ध हुआ
और उठा दिया गया इशारो ही इशारो में इनके बीच से
और इक दुसरे को देखती इनकी पुतलियाँ हंसी जी भर कर
मेरी अयोग्यता और नादानी पर, मेरे सबसे योग्य होते हुए भी
मेने बार बार सिद्ध किया अपनी योग्यता और सार्थकता
पर हटा दिया गया हमेशा के लिए मकान के उस कोने से भी
जोसुरक्षित था जंग लगे लोहे और रद्दी पड़े अख़बार के लिए
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